'स्कीम' हाल हुआ ऐसा भारत सब डटे आग़ में मूत रहे और नए-नए 'स्कीम' चलाकर जन-नायक जन लूट रहे ।१। अरे ! गुन गाए जिन नेता के हम हमें अकेला छोड़ गए और परिवर्तन में सत्ता के हम हवलदार से चोर भये ।२। दौड़े थे दस मील नगद खाये थे कौवे, चील, उड़द सब खाया-गाया व्यर्थ गया वो हमारी नइया लील गए ।३। ये करें घोटाले 2G के और 3G में स्कैम बड़े सब लूट रहे नित-नित उठ-उठ हम दिन भर बस स्पैम पढ़ें ।४। ' स्वव्यस्त '
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Showing posts from 2016
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चुनावी-भूत चढ़ा चुनावी भूत उतर गए, जनता में जनदूत नयन में, घड़ियाली आँसू पहन-कर, पाखण्डों का बूट । अभी कुछ खुद को कोशेंगे वामदल को, फिर जोतेंगे काम कुछ, कर न सके गर क्या काम की, दुंदुभि पीटेंगे । कोई अपना, वन भेजेंगे सारी सुविधाएँ, पीछे से मिलन कर, राम-भरत का फिर सहज, अन्याय में लोटेंगे । करेंगे, वादे सच्चे सब लिए, मायूसी चेहरे पे हाँथ बस, सत्ता तो आये भरेंगे, ठंढे बस्ते सब । नगर में, चारे डालेंगे नया कोई, बेटा पालेंगे किसी के, नाती-पोता बन सभी के, जूता चाटेंगे । यही, सावन इनके मन का प्रीत, इनकी जनता से अब मिटे सब, भूख-प्यास नित-कर्म सुनाएंगे, पग-पग सत्संग । अज़ब हालत, इस धरती की भुलक्कड़, जनता भोली की पाँच सालों में, जो भूले करामातें, इन भूतों की । 'स्वव्य्स्त'
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तब क्या होगा मानवता का ! दरिंदगी दर -दर मुँह-लोलुप जिस्म, खून, दौलत चखने को हवस में आँखें माड़ गयीं और जुनूँ में भूल गए अपनों को ।१। घर से चली, बाज़ार को बिटिया डरी उखड़ती, सांसों में घर वापस आने तक सब चिन्तित किस हाल में लिपटी लाश मिले क़ब ।२। कभी लोग पराए थे दुश्मन अब अपने हाँथ लगे दामन बिस्ता-बिस्ता चटके रिश्ते कोई ओट से झाँक रहा आँगन ।३। जड़ , जिश्मफरोशी शीशमहल में धूल झोंक चलती पायल में रुकते-रुकते अवरोधक बिकते नोट, नवेली-नट, ताकत में ।४। अनाचार आचारपरक और दुराचार व्यवहार हुआ साधू भी अय्यास निकल गए बहुधा पर्दाफ़ाश हुआ ।५। अफ़सोस नहीं इस परिवर्तन का सोच रहा मैं पचपन का अभी बमुश्किल नैतिकता है ...
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शहर में कर्फ़्यू अपनी कुछ नयी पुरानी स्मृतियों से मेरे मस्तिष्क में उठने वाले, दंगों के उन भयानक दृश्यों को शब्दों में पिरोने की कोशिश की है, जिनकी कल्पना मात्र से ही ऑंखें नम और रोएँ भरभरा जाते हैं और साथ ही एक छोटी सी आशा भी की है, एक ऐसे दिन की ज़ब धर्मध्वजी का ये खेल समाप्त कर अमन के साथ मानवता की सुरभित कलियाँ दशों दिशाओं को सुगन्धित करेंगी मची शहर के, गलियारों में आनन -फानन अति भारी बार एक फिर, धर्मध्वजी में गई जगत की मति मारी ।१। पुलिस के जत्थे, चौक पे चौकस दहशतगर्दी गलियों में खून की धारें, फूटीं पग-पग लाश की जमघट नदियों में |२। हैवान की नंगी, सूरत नचती नेपथ्य, कहीं चौबारों में अस्मत लुटती थी चीख़ दब गयी बाग-बाग दीवारों में ।३। सन्नाटा, झन्नाहट पग-पग जहाँ थे कल तक, ठेले-मेले खून के थक्के, जमे जहाँ-तँह कल को बिकते, थे केले ।४।...
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याद में तिल-तिल तड़पना याद में तिल-तिल तड़पना रात का जगना झलक भर को एक-बस वीरान में नज़रें भटकना जाने क्या दीवानगी है अजब दिल का टूट, हँसना याद में तिल-तिल तड़पना अश्क पलकों से फिसलना मुस्कुराकर बात करना सुन सके न कोई, उस आवाज़ से पल-पल बिलखना याद में तिल-तिल तड़पना बेरुखी अंदाज़ में कुछ बेसुधी सी होश में वो, महफ़िलों में, तेरी गोरी बाहों का न होना खलना याद में तिल-तिल तड़पना नींद में भी, होश में भी रात आते स्वप्न में भी स्मरण करना तुम्हारी तुमसे सब बेबाक कहना चाहतों की बातें करना स्वप्नों का सजना, विखरना मंज़िलें जिनके लिए सब राज सब संसार तजना अब हैं लगतीं बेवजह ये बेतुका मन का बहकना याद में तिल-तिल तड़पना 'स्वव्यस्त'
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बादल यादें भर-भर लाया बादल यादें भर-भर लाया तन्हाई का मौसम छाया छम-छम करता कहर बरसता दिल की आह! से मन भर आया बादल यादें भर-भर लाया नींद रात की उड़-उड़ जाती अश्क़ों ने लब-पलक भिंगाया चैन दिवस भर नहीं एक पल आशाओं से मन अकुलाया बादल यादें भर-भर लाया तम के तीन प्रहर जा निकले स्वप्न में शोक ने विघ्न लगाया जोर-जोर अति सिसक रहा कोई कहता प्यार किया क्या पाया ? बादल यादें भर-भर लाया | | -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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फिर एक पेड़ को कटते देखा फिर एक पेड़ को कटते देखा लौह खम्भ को गड़ते देखा नूतनता से चिर के पञ्जर लड़ते-लड़ते गिरते देखा फिर एक पेड़ को कटते देखा बचपन जिनकी ऊँगली पकडे गिरते-गिरते चलना सीखा सनम-कमाई के फेरों में बाप-पूत में बँटते देखा फिर एक पेड़ को कटते देखा रेल के ऊपर से बस दौड़ी पुल के नीचे छुक-छुक रेल घोड़े-टट्टु गए तबेले मोटर ऊँट को चढ़ते देखा फिर एक पेड़ को कटते देखा -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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आ मानस तुझे एक, हक़ीकत सुनाऊँ आ मानस तुझे एक, हक़ीकत सुनाऊँ अपने भय से जने, गरल के प्याले पिलाऊँ दिल के चाहने से मिलता, न चाह रोक पाता अपनी आदत से मज़बूर, पीर में मुस्काता तेरा दर्द देख तुझको, सहारा दिखाऊँ आ मानस तुझे एक, हक़ीकत सुनाऊँ ख़ुदा से भी ज़्यादा, मैं ख़ुद से डरा हूँ ये सच ये हक़ीकत है, घबरा रहा हूँ क्योंकि ज़िंदगी कुटिल, जाने कब काट खाए मैं ख़ुद को भूल जाऊँ, एक भूल बस हो जाए न मुझमें बुराई, तनिक भी मग़र जाने कब जाने कैसे, कोई नीचता दिखाऊँ आ मानस तुझे, ये हक़ीकत सुनाऊँ -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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Some people think like they have freedom to kiss their girlfriend wherever they want and they can do what pleases their girlfriend or boyfriend no matter where they are and who is watching.... who cares for 'who's watching'?( ignorance ) I'm kissing my GF, if she don't have any problem, i don't care about what others think? yeah, well said. Don't care for others, but Who'll answer him? Who'll answer that child, watching all this? I mean he's unaware of things, at-least less than you. But feelings, he/she also have, as they're also human beings. They'll blame the environment one day, in which they grew up and this is how things get more and more worse as time passes. Thoughts will fell-down more and more and then, one day an old man will say in a tired voice "What times have come? our days were not that bad !" ... So, I'm just saying ..don't exclaim... it's not because of me or you or someone specific.It is w...
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दीवानगी, रोती रही चाह में उनके, किनारे छोड़-कर सब, चल पड़े सम्भले जब कदम, नयन मुकाम देख, रो पड़े ये बेवजह, किस चाह में हम, खुद की साख खो-खड़े? रो-रो के अश्क , इश्क़ में ये आंखें, सूजती रहीं ख्वाब, लापता हुए दीवानगी, रोती रही दर्द की, कहानियाँ बहुत सुनी थीं, प्यार में थे न सच से, बेख़बर अज्ञान बनकर, बढ़ गये दुर्भाग्य था गज़ल, मिली ना हाँथ लग गयी, शायरी चोट पर, मरहम लगाती रो रही, कह बाँवरी ये, चाह में किसके किनारे, छोड़कर सब चल दिए, तुम आशिक़ी की बाढ़ में, क्यूँ होश खोये, बह गये तुम? -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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अङ्गार है जो जल रहा सावन में बाग़ खिल उठा पतझड़ में फिर क्यूँ रो रहा? प्रतिदिन शमाँ ये बुझ रही हर दिन सवेरा हो रहा दुःख-सुख का सङ्गम ये जहाँ चकवा दुःखी क्यों हो रहा? झट दिवस पन्द्रह बीत जाते आती-जाती पूर्णिमा सृष्टि का हर एक कण सुख-दुःख विरत होता रहा फिर स्वाति जल से तृप्त चातक प्यास से क्यूँ मर रहा ? हर दिन मसानें जल रहीं नवजात भ्रूण में पल रहा फिर शोक बिन सन्ताप बिन उल्लास का कैसा मज़ा ? अरे ! बुझ गया सो राख़, वो अङ्गार है जो जल रहा -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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किस राग से, दिल रो रहा ? दुःख किसी का रो रहा कोई दर्द खुद को हो रहा किससे कहें ? कैसे कहें ? किस राग से, दिल, रो रहा ? कितने दीवाने, जागते सारा जहाँ, जब सो रहा है, क्या वजह इन आंसुओं की ? सब्र क्यों कोई, खो रहा ? ।1। किसकी आँखें, रो रहीं ? कब किसका, आंसू सूखता ? जागता, किसका खुदा ? भगवान किसका, सो रहा ? ।2। किससे कहें ? कैसे कहें ? किस राग से, दिल, रो रहा ? -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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गम के सायों में प्यार की बारिस में, भींग लिए पल-भर अब आंसुओं से लतफत हो जाने का मन है यादों से भर आया दिल, आज इतना नैनों से नदियाँ बहाने का मन है ।1। जो, कह सका ना कभी हाल तुझसे मेरी चाहतों की बातें तेरे जुल्मों के किस्से मेरी यादों की बगिया वो बिखरे इरादे इक वादा मेरा वो बहाने तेरे ।2। सब रहेंगे सलामत लिखे कागजों में मेरी नादान बातें तेरे नख़रे बड़े ।3। प्यार तो तेरा मुझको न हासिल हुआ गम के सायों में घुप्प चीख जाने का मन है ।4। फिरआंसुओं से लतफत हो जाने का मन है -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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दौलत दौलत के भरोसे ये दुनिया दौलत की मची मारा-मारी ।1। कोई कमा रहा, कोई लूट रहा कोई छींट रहा, कोई बीन रहा कोई मांग रहा, कोई छीन रहा कोई बैठे-बैठे, गीन रहा रफ़्तार से, ये दुनिया चलती दौलत के लिए, ये रफ़्तारी दौलत के भरोसे, ये दुनिया दौलत की मची. मारा-मारी ।2। दौलत को बने कोई, व्यापारी दौलत ही को कोई, बना भिखारी दौलत जो हो, व्याहो बेटी बिन व्याह रखो या, घर में कुँवारी दौलत के भरोसे, ये दुनिया दौलत की मची, मारा-मारी ।3। जेबें जो भरी हों, रेजकारी बहुतेरे बिकते, अधिकारी अरे ! मोल भाव भी, कर लेते ख़िदमत जो करे, दोस्ती-यारी दान-स्पर्धा में, पिछड़ गए बरती जाएगी, ईमानदारी दौलत के भरोसे, ये दुनिया दौलत की मची, मारा-मारी ।4। दौलत जो उड़ाए, अधिकारी है हाँथ पसारे, खड़ा भिखारी जितनी दौलत, उतनी ताकत उतने ही करतब, जेबों में खाली जेबें, कठपुतली क...
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यादें समझ न आता, आग में यादें या यादों में, छिपी है आग ।1। जब-जब खिलती, कुसुम कलि झुलसा जाती, ये बैरी बाग़ धुँवा भी इसका, निकल न पाता घुटा जा रहा, मन का राग समझ न आता, आग में यादें या यादों में, छिपी है आग ।2। दुःख देतीं, कभी सुख देतीं कभी-कभी, करती आक्रान्त मुख पे कभी, हँसी झलकातीं कभी तनिक, कर जातीं उदास समझ न आता, आग में यादें या यादों में, छिपी है आग ।3। -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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समझ सका तो पार है लड़ेगा जो हर बात में विवाद नजर आएगा जिंदगी फंसाद में मुकाम गुजर जाएगा आन बान शान ये मकान भी लड़ायेगा वकील थानेदार वो दीवान भी लड़ायेगा बात से जुबान का ये घात भी लड़ायेगा जो बात धर्म की छिड़ी समाज बर्गलाएगा न माने गर तू बात खुद का बाप बड़बड़ायेगा या मान ली जो बात दर, वो भूत तेरे आएगा लड़ेगा जो हर बात में विवाद नज़र आएगा मानना तुझे सही गलत है क्या है बेफिजूल समझ सका तो पार है नहीं तो दुःख अपार है दीवार ये बाजार रोजगार भी लड़ायेगा लड़ेगा जो हर बात में विवाद नज़र आएगा -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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थका सी जातीं ये यादें हमें बुलाते, हम आ जाते यादों में क्यों, क्या जीना ? थका सी जातीं, ये यादें घुट-घुट आंसू, ये पीना ।1। रहना था जब, दिल के पास ही दूर निकल गए, जाने कहाँ क्यों दिल में जगह, दी थी रह जाते मुश्किल ना, होता जीना थका सी जातीं, ये यादें घुट-घुट आंसू, ये पीना ।2। ख़ता हुयी, जो भी मुझसे एक बार को तो, कह सकते थे? नाचीज़ के तो, सब कुछ तुम ही थे तन, जीवन, मरना-जीना ।3। बस लौट अभी, आ जाओ अब, मुश्किल लगता तुम बिन जीना थका सी जातीं, ये यादें और घुट-घुट आंसू, ये पीना ।4। -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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सोच मैं उनके सहारे जो किया, था वो गलत? या किया जिससे, गलत था? कर रहा, क्या वो सही है? या के सोचा ही गलत था? ।1। उलझ ऐसी, उधेड़बुन में लड़खड़ा, जाता कभी मैं गिर भी जाता, हूँ कभी फिर, सम्भल जाता आप से ।2। गिरते सम्भलते, लड़खड़ाते चल रहा हूँ, अनवरत न साथ कोई, है न मंजिल ना हि दिखते, अब किनारे ।3। मुड़ सकूँ, एक बार फिर से बदलने, खुद के सितारे छोड़ आया, जिनको पीछे सोच मैं उनके सहारे ।4। -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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साँझ ढल गयी साँझ ढल गयी हे ! प्रियतम , अब धुंध गगन पर छाने लगा विमल इंदु निज शीट किरण से पवन वसुधा चमकाने लगा ।1। प्रातः निकला नभ को विहगा विहगी संग नीड़ सजाने लगा किस और हो भटके ये दो बता चित्त जोर अति अकुलाने लगा ।2। नहीं सह पाउँगा मैं प्रेयषि चकवा चकवी सम विरह व्यथा साँझ ढल गयी है प्रियतम अब जल्दी घर वापस आ जा ।3। -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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ख़ुदपसन्दी न कोई बात है अगर तो हँस रहा हूँ क्यूँ मगर? है तंग ही सही डहर मचल रहा डगर-डगर सुबह जो देर से जगा तो हो चुकी है दोपहर है तंग भींड से शहर सभी की आँख जोहती सुनहली, चाँदनी मुहर मुझे, न कुछ भी चाहिए आराम से मैं इस पहर ।1। जगा जो देर से जरा न इल्म है, न मन हरा है जोश है, जुनून है भविष्य मुठ्ठियों भरा सँजो रहा विवेक से है आत्ममान भी भरा है आश एक छुपी हुयी वो डर तो ज्यों डरा-मरा ।2। -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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अविस्वास चमकती चाँदनी बिखरी सवेरा हर पहर फैला अँधेरी हैं तो बस गलियाँ जमाने के दिलों लाला ।1। वो जिन हाथों में सौंपी थी अमुल जीवन-कुसुम कलियां दगेबाजी के डर शायद उन्होंने भूल कर डाला ।2। जो हमको जान से प्यारा उन्हीं नज़रों में हम काले जो ये सोचा भभक बैठी न मिटती आग ना ज्वाला ।3। भयानक स्वप्न घर करते चढ़ा निज विम्ब पर माला हमीं ने गम के मारे खुद हमीं का कत्ल कर डाला ।4। समझ में बात आयी अब जो ख्वाब-ए-कत्ल कर डाला न मेहँदी रंग लाती है न ऑंखें सुरमे से काला ।5। यहाँ सब खेल उल्टा है बुना मकड़ी का घन-जाला वो हाँथो का करिश्मा था कहीं आँखों ने कर डाला ।6। -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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बैरी हवा बैरी हवा जब छू के जाती जख्म जो तूने लगाये तुझसे मिलने को पवन-मन आज भी ये चहचाहये ।1। जब भी दिल को, याद तेरी फूल सी, सूरत वो आती चुभते हैं, काँटे चमन के हर कलि भी, खिलखिलाती बदलों में, घिर के सावन, छनछना कर, बरस जाये आज भी तुझे देखने को जाने क्यूँ मन तरस जाये ।2 । तुझसे मिलने को पवन-मन आज भी ये चहचाहये -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-