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Showing posts from September, 2016
चुनावी-भूत  चढ़ा चुनावी भूत उतर गए, जनता में जनदूत नयन में, घड़ियाली आँसू पहन-कर, पाखण्डों का बूट । अभी कुछ खुद को कोशेंगे वामदल को, फिर जोतेंगे काम कुछ, कर न सके गर क्या काम की, दुंदुभि पीटेंगे । कोई अपना, वन भेजेंगे सारी सुविधाएँ, पीछे से मिलन कर, राम-भरत का फिर सहज, अन्याय में लोटेंगे । करेंगे, वादे सच्चे सब लिए, मायूसी चेहरे पे हाँथ बस, सत्ता तो आये भरेंगे, ठंढे बस्ते सब । नगर में, चारे डालेंगे नया कोई, बेटा पालेंगे किसी के, नाती-पोता बन सभी के, जूता चाटेंगे । यही, सावन इनके मन का प्रीत, इनकी जनता से अब मिटे सब, भूख-प्यास नित-कर्म सुनाएंगे, पग-पग सत्संग । अज़ब हालत, इस धरती की भुलक्कड़, जनता भोली की पाँच सालों में, जो भूले करामातें, इन भूतों की । 'स्वव्य्स्त'