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Showing posts from March, 2016
अङ्गार है जो जल रहा सावन में बाग़ खिल उठा  पतझड़ में फिर क्यूँ रो रहा? प्रतिदिन शमाँ ये बुझ रही  हर दिन सवेरा हो  रहा दुःख-सुख का सङ्गम  ये जहाँ  चकवा दुःखी क्यों हो रहा? झट दिवस पन्द्रह  बीत जाते  आती-जाती पूर्णिमा सृष्टि का हर एक कण  सुख-दुःख विरत  होता रहा  फिर स्वाति जल से  तृप्त चातक  प्यास से क्यूँ मर रहा ?  हर दिन मसानें जल रहीं  नवजात भ्रूण में  पल रहा  फिर शोक बिन  सन्ताप बिन  उल्लास का  कैसा मज़ा ?  अरे ! बुझ गया सो राख़, वो  अङ्गार है जो जल रहा   -0_0-  हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-