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तब क्या होगा मानवता का !  दरिंदगी दर -दर   मुँह-लोलुप  जिस्म, खून, दौलत  चखने को  हवस में आँखें  माड़ गयीं  और जुनूँ में  भूल गए अपनों को ।१।  घर से चली, बाज़ार को बिटिया  डरी उखड़ती, सांसों में घर  वापस आने तक  सब चिन्तित  किस हाल में लिपटी  लाश मिले क़ब  ।२।   कभी लोग पराए  थे दुश्मन  अब अपने हाँथ  लगे दामन  बिस्ता-बिस्ता  चटके रिश्ते  कोई ओट से  झाँक रहा आँगन  ।३।    जड़ , जिश्मफरोशी  शीशमहल में  धूल झोंक चलती पायल में  रुकते-रुकते  अवरोधक बिकते  नोट, नवेली-नट, ताकत में  ।४। अनाचार आचारपरक  और दुराचार व्यवहार हुआ  साधू भी अय्यास निकल गए  बहुधा पर्दाफ़ाश हुआ  ।५। अफ़सोस नहीं  इस परिवर्तन का  सोच रहा मैं पचपन का  अभी बमुश्किल                नैतिकता है                              तब क्या होगा मानवता का !  ।६। 'स्वव्य्स्त'