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Showing posts from 2017
मुझे सपने देखने की बहुत बुरी आदत है, और सपने भी ऐसे देखता हूँ जिनका हकीकत से से कोई लेना देना ही नहीं होता | तो एक दिन ऐसे ही एक सपना देखा मैंने, कि शाम का वक़्त है, मैं कहीं किसी शहर की किसी गली के किसी एक छोटे से कैफ़े में हूँ और प्यार पर कोई एक कविता लोगों को सुना  रहा हूँ, सब बड़ी ही शांति से सुन रहे हैं और तभी अचानक से एक आवाज़ गूंजती है, कोई मेरा नाम लेते हुए वाह! करता है  .... और मैं थोड़ा चौंक सा जाता हूँ ...क्योंकि आवाज मुझे कुछ सुनी-सुनी सी मालूम पड़ती है | जब मैं उस ओर देखता हूँ, जिधर से आवाज आयी है, तो एक वर्षों पुराना दोस्त सामने खड़ा, मुस्कुराता दिखता है....फ़िर मैं भी उसका धन्यवाद करता हूँ और इशारे में ही उस से कहने की कोशिश करता हूँ, कि event खत्म होने के बाद मिलते हैं |                        बहरहाल event खत्म होता है, मैं और मेरा दोस्त दोनों बातें करते कैफ़े से बाहर निकल रहे होते हैं और जैसा अक्सर होता है किसी पुराने दोस्त से मिलने पर, अचानक मुँह से निकल जाता है। .. ये प्यार-मोहब्बत की बातें तो बहुत हुईं दोस्त, चल चाय पीते हैं |             अगले दिन जब मैं स

परिवर्तन

एक शेर अर्ज़ है - न जाने कब समझ पाएंगे, मुर्दा रेंगते ज़ालिम जुबां से दर्द कहने में भी, कितना दर्द सहता हूँ || ********************************************************** एहसास बदलते जाते हैं इतिहास बदलते जाते हैं इस परिवर्तन को अपनाते इंसान बदलते जाते हैं कुछ ख़ास बदलते जाते हैं ये रास बदलते जाते हैं और पैसों की इस नगरी में विस्वास बदलते जाते हैं धन लोभ में उलझे जीवन के सरोकार बदलते जाते हैं उस देव मूर्ति के बेशक़ीमती हार बदलते जाते हैं (इंसान समस्त प्राणियों में सबसे बुद्धजीवी है, इसलिए उसकी तुलना परमात्मा के बेसकीमती हार से की है) इस शहर की चलती रेल-सड़क वो मकान बदलते जाते हैं अरे ! धुन में लिखे इन गीतों के फ़नकार बदलते जाते हैं सर्वत्र जोर इस परिवर्तन का परिवर्तन सब पर भारी [ ये एक ऐसा चक्र है, जिसकी न तो कोई शुरूआत है, न कोई अंत, या अंत ही शुरुआत है, कुछ स्पष्ट नहीं हो पाता, ये बस चलता रहता है, और जो रोकने की जुर्रत करता है, उसका अस्तित्व ही नष्ट हो जाता है ] तो सर्वत्र जोर इस परिवर्तन का परिवर्तन सब पर भारी जो चल न सका दो कदम मिला है कुचल गया वो संसारी ( कोडक जैसी कम्पनी, जो कभी

बुढ़ापा

सिसकती थक हार जीवन अंत से बेजान जर्ज़र सह थपेड़े जिंदगी के पूतों के दुत्कार बर्बर |1| झुक गईं सब अस्थियाँ कोमल त्वचा झुर्रा गयी ज्यों सर तड़ागों की कुमुदनी धूप से कुम्हला गई |2| प्रीत थी जब तक थे प्रीतम प्रियतमा कहने को कोई नींद थी, रातें भी थीं और साथ में हम-राह कोई |3| पर... अब वो प्रीतम न प्रीत जग में ना रहा हमदर्द साईं खो गए श्रृंगार सारे गेसुओं की रहनुमाई |4| अब तो बस, कुछ यादें दिल में ढेर सारी सिसकियाँ हैं दूर से आदर दिखाती, शेष कुछ नजदीकियां हैं |5| -स्वव्यस्त

आओ सब मिल एक हों हम

बातें ऊँची, ऊँचे मक़सद नीच हरकत हो गयी हमने देखा काफ़िलों को मौत लेकर सो गयी सब मरे कातिल, पुजारी आशिकी के फुलझड़ी मौत खाकर ख़ाक़ हँसती है क्या तेरी हेकड़ी ? कह रहे जितने गए सब बच सके न बन पड़ी पाक हो नापाक सब-पर मौत ये दर-दर खड़ी गर एक क्षण ही जिंदगी है क्यों न खुशियां बाँट दें ? आओ सब मिल एक हों हम खाईयोँ को पाट दें -0_0- ' स्वव्यस्त' -0_0-

भूलो तो कुछ भी याद नहीं

मन की नादानी मन में है  नैनों की कहानी  नज़रों में  भूलो तो कुछ भी याद नहीं  करो याद तो बाहें,  बाहों में  अठखेलि वही नैनों की पुरानी  खेल नज़रिये का अपना  नैनों को भाये  मन में बसे  दिल को भाये  दरगाहों में  दिल का मिलना  रोना, खोना  है दीवानापन, साँसों में  अपनों को गैर किये  चाहत में  लुट गए भरी बज़ारों में  चाहत ना थी  कोई प्यार करे  बस प्यार हमारा अपना ले  पर  चाहो गर  सब कुछ मिल जाए  फिर बात ही क्या  अभिशापों में   -0_0-  हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
आज़ के अखबारों में बड़े-बड़े शहरों में ग़ालिब अखबारों में क्या छपता ! देश का बनिया लूट चवन्नी परदेशों में जा छिपता [१ ]   सरकारें अफ़रा-तफ़री में बैंक बड़े बेहाल पड़े देश-देशान्तर तू-तू मैं-मैं जनता ले अख़बार पढ़े [२ ] डुब गई लुटिया, वातिल-गमन की  नेता जी के क्या छटका? मरती तो बदहाल किसानी भारत का सोना मरता [३]   आज़ के अख़बारों में ग़ालिब न्याय छोड़ सब कुछ छपता [४] 'स्वव्यस्त' 
तुम जश्न मनाते जाते हो तुम जश्न मनाते गाते हो  जिस ख़ुशी पे तुम इतराते हो  तुम कहाँ सोच कब ये पाते  किसकी कुर्बानी खाते हो ।। कब किसके कुञ्ज उजड़ते हैं  जब हँसी तुम्हारी बेबस है  तुम कहाँ समझ भी ये पाते  किस पल-छिन क्या तुम खाते हो ।। तुम जश्न मनाते जाते हो ।। ' स्वव्यस्त '
दिल की आवारगी में, दिन का बंजारापन चाहत में डूबती कुछ, आँखों का बेचारापन दिल की आवारगी में, दिन का बंजारापन ।।   शहर एक नहीं, गाँव एक नहीं  मुझ राही को, ठाँव एक नहीं  चलता जाता, बढ़ता जाता  बाज़ारों में, भाव एक नहीं बदल गए सब, यार वो यारी  ख़्वाबों में अब, ख़्वाब एक नहीं     पूछ पड़ा मन...  बेचारी क्यूँ? ... कैसा ये मतवालापन ? दिल की आवारगी में, दिन का बंजारापन ।।   समझ-समझ कभी, थक सो जाता  कभी, रात भर नींद नहीं  नाव बहुत, इस जलडमरू, बस  नावों में, पतवार एक नहीं पीर उठी होठों की चिरकन, नियति करे दीवानापन दिल की आवारगी में, दिन का बंजारापन ।। ' स्वव्यस्त ' अच्छा लगे तो शेयर करना न भूलें ...  धन्यवाद !