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Showing posts from October, 2017

बुढ़ापा

सिसकती थक हार जीवन अंत से बेजान जर्ज़र सह थपेड़े जिंदगी के पूतों के दुत्कार बर्बर |1| झुक गईं सब अस्थियाँ कोमल त्वचा झुर्रा गयी ज्यों सर तड़ागों की कुमुदनी धूप से कुम्हला गई |2| प्रीत थी जब तक थे प्रीतम प्रियतमा कहने को कोई नींद थी, रातें भी थीं और साथ में हम-राह कोई |3| पर... अब वो प्रीतम न प्रीत जग में ना रहा हमदर्द साईं खो गए श्रृंगार सारे गेसुओं की रहनुमाई |4| अब तो बस, कुछ यादें दिल में ढेर सारी सिसकियाँ हैं दूर से आदर दिखाती, शेष कुछ नजदीकियां हैं |5| -स्वव्यस्त

आओ सब मिल एक हों हम

बातें ऊँची, ऊँचे मक़सद नीच हरकत हो गयी हमने देखा काफ़िलों को मौत लेकर सो गयी सब मरे कातिल, पुजारी आशिकी के फुलझड़ी मौत खाकर ख़ाक़ हँसती है क्या तेरी हेकड़ी ? कह रहे जितने गए सब बच सके न बन पड़ी पाक हो नापाक सब-पर मौत ये दर-दर खड़ी गर एक क्षण ही जिंदगी है क्यों न खुशियां बाँट दें ? आओ सब मिल एक हों हम खाईयोँ को पाट दें -0_0- ' स्वव्यस्त' -0_0-