अङ्गार है जो जल रहा
सावन में बाग़ खिल उठा
पतझड़ में फिर क्यूँ रो रहा?
प्रतिदिन शमाँ ये बुझ रही
हर दिन सवेरा हो रहा
दुःख-सुख का सङ्गम
ये जहाँ
चकवा दुःखी क्यों हो रहा?
झट दिवस पन्द्रह
बीत जाते
आती-जाती पूर्णिमा
सृष्टि का हर एक कण
सुख-दुःख विरत
होता रहा
फिर स्वाति जल से
तृप्त चातक
प्यास से क्यूँ मर रहा ?
हर दिन मसानें जल रहीं
नवजात भ्रूण में
पल रहा
फिर शोक बिन
सन्ताप बिन
उल्लास का
कैसा मज़ा ?
अरे ! बुझ गया सो राख़, वो
अङ्गार है जो जल रहा
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