बेतुकी सी चाह
वो सिंधु विकसित लालसाएँ
चढ़ गयीं दुर्भाग्य को
जो नित्य जग-जग देखता था
चढ़ती-उतरती रात को ।1।
पल-पल समेटा
फैलती गयी
इक बेतुकी सी चाह को ।2।
चाहत न होती, दर्द भी,
मिलता नहीं चातक अहो !
काश पल-पल ना ही तकते,
बूँद इक जल स्वाति को! ।3।
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