बेतुकी सी चाह 


वो सिंधु विकसित लालसाएँ 
चढ़ गयीं दुर्भाग्य को
जो नित्य जग-जग देखता था 
चढ़ती-उतरती रात को ।1।

पल-पल समेटा
फैलती गयी
इक बेतुकी सी चाह को ।2।

चाहत न होती, दर्द भी,
मिलता नहीं चातक अहो !
काश पल-पल ना ही तकते,
बूँद इक जल स्वाति को! ।3।


-0_0- हिमांशु राय 'स्वव्यस्त' -0_0-

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