एक शेर अर्ज़ है - न जाने कब समझ पाएंगे, मुर्दा रेंगते ज़ालिम जुबां से दर्द कहने में भी, कितना दर्द सहता हूँ || ********************************************************** एहसास बदलते जाते हैं इतिहास बदलते जाते हैं इस परिवर्तन को अपनाते इंसान बदलते जाते हैं कुछ ख़ास बदलते जाते हैं ये रास बदलते जाते हैं और पैसों की इस नगरी में विस्वास बदलते जाते हैं धन लोभ में उलझे जीवन के सरोकार बदलते जाते हैं उस देव मूर्ति के बेशक़ीमती हार बदलते जाते हैं (इंसान समस्त प्राणियों में सबसे बुद्धजीवी है, इसलिए उसकी तुलना परमात्मा के बेसकीमती हार से की है) इस शहर की चलती रेल-सड़क वो मकान बदलते जाते हैं अरे ! धुन में लिखे इन गीतों के फ़नकार बदलते जाते हैं सर्वत्र जोर इस परिवर्तन का परिवर्तन सब पर भारी [ ये एक ऐसा चक्र है, जिसकी न तो कोई शुरूआत है, न कोई अंत, या अंत ही शुरुआत है, कुछ स्पष्ट नहीं हो पाता, ये बस चलता रहता है, और जो रोकने की जुर्रत करता है, उसका अस्तित्व ही नष्ट हो जाता है ] तो सर्वत्र जोर इस परिवर्तन का परिवर्तन सब पर भारी जो चल न सका दो कदम मिला है कुचल गया वो संसारी ( कोडक जैसी कम्पनी, जो कभी
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