यादें 

समझ न आता, आग में यादें 
या यादों में, छिपी है आग।1।

जब-जब खिलती, कुसुम कलि 
झुलसा जाती, ये बैरी बाग़ 
धुँवा भी इसका, निकल न पाता 
घुटा जा रहा, मन का राग 

समझ न आता, आग में यादें 
या यादों में, छिपी है आग ।2।

दुःख देतीं, कभी सुख देतीं 
कभी-कभी, करती आक्रान्त 
मुख पे कभी, हँसी झलकातीं 
कभी तनिक, कर जातीं उदास 

समझ न आता, आग में यादें 
या यादों में, छिपी है आग ।3।

-0_0- हिमांशु राय 'स्वव्यस्त' -0_0-

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