चुनावी-भूत
चढ़ा चुनावी भूत
उतर गए, जनता में जनदूत
नयन में, घड़ियाली आँसू
पहन-कर, पाखण्डों का बूट ।
अभी कुछ खुद को कोशेंगे
वामदल को, फिर जोतेंगे
काम कुछ, कर न सके गर क्या
काम की, दुंदुभि पीटेंगे ।
कोई अपना, वन भेजेंगे
सारी सुविधाएँ, पीछे से
मिलन कर, राम-भरत का फिर
सहज, अन्याय में लोटेंगे ।
करेंगे, वादे सच्चे सब
लिए, मायूसी चेहरे पे
हाँथ बस, सत्ता तो आये
भरेंगे, ठंढे बस्ते सब ।
नगर में, चारे डालेंगे
नया कोई, बेटा पालेंगे
किसी के, नाती-पोता बन
सभी के, जूता चाटेंगे ।
यही, सावन इनके मन का
प्रीत, इनकी जनता से अब
मिटे सब, भूख-प्यास नित-कर्म
सुनाएंगे, पग-पग सत्संग ।
अज़ब हालत, इस धरती की
भुलक्कड़, जनता भोली की
पाँच सालों में, जो भूले
करामातें, इन भूतों की ।
'स्वव्य्स्त'
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