अङ्गार है जो जल रहा सावन में बाग़ खिल उठा पतझड़ में फिर क्यूँ रो रहा? प्रतिदिन शमाँ ये बुझ रही हर दिन सवेरा हो रहा दुःख-सुख का सङ्गम ये जहाँ चकवा दुःखी क्यों हो रहा? झट दिवस पन्द्रह बीत जाते आती-जाती पूर्णिमा सृष्टि का हर एक कण सुख-दुःख विरत होता रहा फिर स्वाति जल से तृप्त चातक प्यास से क्यूँ मर रहा ? हर दिन मसानें जल रहीं नवजात भ्रूण में पल रहा फिर शोक बिन सन्ताप बिन उल्लास का कैसा मज़ा ? अरे ! बुझ गया सो राख़, वो अङ्गार है जो जल रहा -0_0- हिमांशु राय ' स्वव्यस्त' -0_0-
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