
शहर में कर्फ़्यू अपनी कुछ नयी पुरानी स्मृतियों से मेरे मस्तिष्क में उठने वाले, दंगों के उन भयानक दृश्यों को शब्दों में पिरोने की कोशिश की है, जिनकी कल्पना मात्र से ही ऑंखें नम और रोएँ भरभरा जाते हैं और साथ ही एक छोटी सी आशा भी की है, एक ऐसे दिन की ज़ब धर्मध्वजी का ये खेल समाप्त कर अमन के साथ मानवता की सुरभित कलियाँ दशों दिशाओं को सुगन्धित करेंगी मची शहर के, गलियारों में आनन -फानन अति भारी बार एक फिर, धर्मध्वजी में गई जगत की मति मारी ।१। पुलिस के जत्थे, चौक पे चौकस दहशतगर्दी गलियों में खून की धारें, फूटीं पग-पग लाश की जमघट नदियों में |२। हैवान की नंगी, सूरत नचती नेपथ्य, कहीं चौबारों में अस्मत लुटती थी चीख़ दब गयी बाग-बाग दीवारों में ।३। सन्नाटा, झन्नाहट पग-पग जहाँ थे कल तक, ठेले-मेले खून के थक्के, जमे जहाँ-तँह कल को बिकते, थे केले ।४।...